Ве́тхий Заве́т:
Быт.
Исх.
Лев.
Чис.
Втор.
Нав.
Суд.
Руф.
1Цар.
2Цар.
3Цар.
4Цар.
1Пар.
2Пар.
1Езд.
Неем.
2Езд.
Тов.
Иудиф.
Есф.
Иов.
Пс.
Прит.
Еккл.
Песн.
Прем.
Сир.
Ис.
Иер.
Плч.
ПослИер.
Вар.
Иез.
Дан.
Ос.
Иоил.
Ам.
Авд.
Ион.
Мих.
Наум.
Авв.
Соф.
Аг.
Зах.
Мал.
1Мак.
2Мак.
3Мак.
3Езд.
Но́вый Заве́т: Мф. Мк. Лк. Ин. Деян. Иак. 1Пет. 2Пет. 1Ин. 2Ин. 3Ин. Иуд. Рим. 1Кор. 2Кор. Гал. Еф. Флп. Кол. 1Фес. 2Фес. 1Тим. 2Тим. Тит. Флм. Евр. Откр.
Но́вый Заве́т: Мф. Мк. Лк. Ин. Деян. Иак. 1Пет. 2Пет. 1Ин. 2Ин. 3Ин. Иуд. Рим. 1Кор. 2Кор. Гал. Еф. Флп. Кол. 1Фес. 2Фес. 1Тим. 2Тим. Тит. Флм. Евр. Откр.
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Псалом 9
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см.:Деян.23:15;
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Въ коне́цъ, о та́йныхъ сы́на, псало́мъ Дави́ду, 9.
Исповѣ́мся Тебѣ́, Го́споди, всѣ́мъ се́рдцемъ мои́мъ, повѣ́мъ вся́ чудеса́ Твоя́.
Возвеселю́ся и возра́дуюся о Тебѣ́, пою́ и́мени Твоему́, Вы́шнiй.
Внегда́ возврати́тися врагу́ моему́ вспя́ть, изнемо́гутъ и поги́бнутъ от лица́ Твоего́.
Я́ко сотвори́лъ еси́ су́дъ мо́й и прю́ мою́: сѣ́лъ еси́ на престо́лѣ, судя́й пра́вду.
Запрети́лъ еси́ язы́комъ, и поги́бе нечести́вый: и́мя его́ потреби́лъ еси́ въ вѣ́къ и въ вѣ́къ вѣ́ка.
Врагу́ оскудѣ́ша ору́жiя въ коне́цъ, и гра́ды разруши́лъ еси́: поги́бе па́мять его́ съ шу́момъ.
И Госпо́дь во вѣ́къ пребыва́етъ, угото́ва на су́дъ престо́лъ Сво́й:
и То́й суди́ти и́мать вселе́ннѣй въ пра́вду, суди́ти и́мать лю́демъ въ правотѣ́.
И бы́сть Госпо́дь прибѣ́жище убо́гому, помо́щникъ во благовре́менiихъ, въ ско́рбехъ.
И да упова́ютъ на Тя́ зна́ющiи и́мя Твое́, я́ко не оста́вилъ еси́ взыска́ющихъ Тя́, Го́споди.
По́йте Го́сподеви, живу́щему въ Сiо́нѣ, возвѣсти́те во язы́цѣхъ начина́нiя Его́:
я́ко взыска́яй кро́ви и́хъ помяну́, не забы́ зва́нiя убо́гихъ.
Поми́луй мя́, Го́споди, ви́ждь смире́нiе мое́ от вра́гъ мои́хъ, вознося́й мя́ от вра́тъ сме́ртныхъ:
я́ко да возвѣщу́ вся́ хвалы́ Твоя́ во вратѣ́хъ дще́ре Сiо́ни: возра́дуемся о спасе́нiи Твое́мъ.
Углѣбо́ша язы́цы въ па́губѣ, ю́же сотвори́ша: въ сѣ́ти се́й, ю́же скры́ша, увязе́ нога́ и́хъ.
Зна́емь е́сть Госпо́дь судьбы́ творя́й: въ дѣ́лѣхъ руку́ свое́ю увязе́ грѣ́шникъ.
Да возвратя́тся грѣ́шницы во а́дъ, вси́ язы́цы забыва́ющiи Бо́га.
Я́ко не до конца́ забве́нъ бу́детъ ни́щiй, терпѣ́нiе убо́гихъ не поги́бнетъ до конца́.
Воскре́сни́, Го́споди, да не крѣпи́тся человѣ́къ, да су́дятся язы́цы предъ Тобо́ю.
Поста́ви, Го́споди, законоположи́теля надъ ни́ми, да разумѣ́ютъ язы́цы, я́ко человѣ́цы су́ть.
Вску́ю, Го́споди, отстоя́ дале́че, презира́еши во благовре́менiихъ, въ ско́рбехъ?
Внегда́ горди́тися нечести́вому, возгара́ется ни́щiй: увяза́ютъ въ совѣ́тѣхъ, я́же помышля́ютъ.
Я́ко хвали́мь е́сть грѣ́шный въ по́хотехъ души́ своея́, и оби́дяй благослови́мь е́сть.
Раздражи́ Го́спода грѣ́шный: по мно́жеству гнѣ́ва своего́ не взы́щетъ: нѣ́сть Бо́га предъ ни́мъ.
Оскверня́ются путiе́ его́ на вся́ко вре́мя: отъе́млются судьбы́ Твоя́ от лица́ его́: всѣ́ми враги́ свои́ми облада́етъ.
Рече́ бо въ се́рдцы свое́мъ: не подви́жуся от ро́да въ ро́дъ безъ зла́:
его́же кля́твы уста́ его́ по́лна су́ть, и го́рести и льсти́: подъ язы́комъ его́ тру́дъ и болѣ́знь.
Присѣди́тъ въ лови́телствѣ съ бога́тыми въ та́йныхъ, е́же уби́ти непови́ннаго: о́чи его́ на ни́щаго призира́етѣ.
Лови́тъ въ та́йнѣ я́ко ле́въ во огра́дѣ свое́й, лови́тъ е́же восхи́тити ни́щаго, внегда́ привлещи́ и́ въ сѣ́ти свое́й.
Смири́тъ его́: преклони́тся и паде́тъ, внегда́ ему́ облада́ти убо́гими.
Рече́ бо въ се́рдцы свое́мъ: забы́ Бо́гъ, отврати́ лице́ Свое́, да не ви́дитъ до конца́.
Воскре́сни́, Го́споди Бо́же мо́й, да вознесе́тся рука́ Твоя́, не забу́ди убо́гихъ Твои́хъ до конца́.
Чесо́ ра́ди прогнѣ́ва нечести́вый Бо́га? Рече́ бо въ се́рдцы свое́мъ: не взы́щетъ.
Ви́диши, я́ко Ты́ болѣ́знь и я́рость смотря́еши, да пре́данъ бу́детъ въ ру́цѣ Твои́: Тебѣ́ оста́вленъ е́сть ни́щiй, си́ру Ты́ бу́ди помо́щникъ.
Сокруши́ мы́шцу грѣ́шному и лука́вому: взы́щется грѣ́хъ его́ и не обря́щется.
Госпо́дь Ца́рь во вѣ́къ и въ вѣ́къ вѣ́ка: поги́бнете, язы́цы, от земли́ Его́.
Жела́нiе убо́гихъ услы́шалъ еси́, Го́споди, угото́ванiю се́рдца и́хъ вня́тъ у́хо Твое́.
Суди́ си́ру и смире́ну, да не приложи́тъ ктому́ велича́тися человѣ́къ на земли́.
͂εἰς τὸ τέλος ὑπὲρ τῶν κρυφίων τοῦ υἱοῦ ψαλμὸς τῷ Δαυιδ
ἐξομολογήσομαί σοι κύριε ἐν ὅλῃ καρδίᾳ μου διηγήσομαι πάντα τὰ θαυμάσιά σου
εὐφρανθήσομαι καὶ ἀγαλλιάσομαι ἐν σοί ψαλῶ τῷ ὀνόματί σου ὕψιστε
ἐν τῷ ἀποστραφῆναι τὸν ἐχθρόν μου εἰς τὰ ὀπίσω ἀσθενήσουσιν καὶ ἀπολοῦνται ἀπὸ προσώπου σου
ὅτι ἐποίησας τὴν κρίσιν μου καὶ τὴν δίκην μου ἐκάθισας ἐπὶ θρόνου ὁ κρίνων δικαιοσύνην
ἐπετίμησας ἔθνεσιν καὶ ἀπώλετο ὁ ἀσεβής τὸ ὄνομα αὐτῶν ἐξήλειψας εἰς τὸν αἰῶνα καὶ εἰς τὸν αἰῶνα τοῦ αἰῶνος
τοῦ ἐχθροῦ ἐξέλιπον αἱ ῥομφαῖαι εἰς τέλος καὶ πόλεις καθεῖλες ἀπώλετο τὸ μνημόσυνον αὐτῶν μετ᾿ ἤχους
καὶ ὁ κύριος εἰς τὸν αἰῶνα μένει ἡτοίμασεν ἐν κρίσει τὸν θρόνον αὐτοῦ
καὶ αὐτὸς κρινεῖ τὴν οἰκουμένην ἐν δικαιοσύνῃ κρινεῖ λαοὺς ἐν εὐθύτητι
καὶ ἐγένετο κύριος καταφυγὴ τῷ πένητι βοηθὸς ἐν εὐκαιρίαις ἐν θλίψει
καὶ ἐλπισάτωσαν ἐπὶ σὲ οἱ γινώσκοντες τὸ ὄνομά σου ὅτι οὐκ ἐγκατέλιπες τοὺς ἐκζητοῦντάς σε κύριε
ψάλατε τῷ κυρίῳ τῷ κατοικοῦντι ἐν Σιων ἀναγγείλατε ἐν τοῖς ἔθνεσιν τὰ ἐπιτηδεύματα αὐτοῦ
ὅτι ἐκζητῶν τὰ αἵματα αὐτῶν ἐμνήσθη οὐκ ἐπελάθετο τῆς κραυγῆς τῶν πενήτων
ἐλέησόν με κύριε ἰδὲ τὴν ταπείνωσίν μου ἐκ τῶν ἐχθρῶν μου ὁ ὑψῶν με ἐκ τῶν πυλῶν τοῦ θανάτου
ὅπως ἂν ἐξαγγείλω πάσας τὰς αἰνέσεις σου ἐν ταῖς πύλαις τῆς θυγατρὸς Σιων ἀγαλλιάσομαι ἐπὶ τῷ σωτηρίῳ σου
ἐνεπάγησαν ἔθνη ἐν διαφθορᾷ ᾗ ἐποίησαν ἐν παγίδι ταύτῃ ᾗ ἔκρυψαν συνελήμφθη ὁ ποὺς αὐτῶν
γινώσκεται κύριος κρίματα ποιῶν ἐν τοῖς ἔργοις τῶν χειρῶν αὐτοῦ συνελήμφθη ὁ ἁμαρτωλός ᾠδὴ διαψάλματος
ἀποστραφήτωσαν οἱ ἁμαρτωλοὶ εἰς τὸν ᾅδην πάντα τὰ ἔθνη τὰ ἐπιλανθανόμενα τοῦ θεοῦ
ὅτι οὐκ εἰς τέλος ἐπιλησθήσεται ὁ πτωχός ἡ ὑπομονὴ τῶν πενήτων οὐκ ἀπολεῖται εἰς τὸν αἰῶνα
ἀνάστηθι κύριε μὴ κραταιούσθω ἄνθρωπος κριθήτωσαν ἔθνη ἐνώπιόν σου
κατάστησον κύριε νομοθέτην ἐπ᾿ αὐτούς γνώτωσαν ἔθνη ὅτι ἄνθρωποί εἰσιν (διάψαλμα)
ἵνα τί κύριε ἀφέστηκας μακρόθεν ὑπερορᾷς ἐν εὐκαιρίαις ἐν θλίψει
ἐν τῷ ὑπερηφανεύεσθαι τὸν ἀσεβῆ ἐμπυρίζεται ὁ πτωχός συλλαμβάνονται ἐν διαβουλίοις οἷς διαλογίζονται
ὅτι ἐπαινεῖται ὁ ἁμαρτωλὸς ἐν ταῖς ἐπιθυμίαις τῆς ψυχῆς αὐτοῦ καὶ ὁ ἀδικῶν ἐνευλογεῖται
παρώξυνεν τὸν κύριον ὁ ἁμαρτωλός κατὰ τὸ πλῆθος τῆς ὀργῆς αὐτοῦ οὐκ ἐκζητήσει οὐκ ἔστιν ὁ θεὸς ἐνώπιον αὐτοῦ
βεβηλοῦνται αἱ ὁδοὶ αὐτοῦ ἐν παντὶ καιρῷ ἀνταναιρεῖται τὰ κρίματά σου ἀπὸ προσώπου αὐτοῦ πάντων τῶν ἐχθρῶν αὐτοῦ κατακυριεύσει
εἶπεν γὰρ ἐν καρδίᾳ αὐτοῦ οὐ μὴ σαλευθῶ ἀπὸ γενεᾶς εἰς γενεὰν ἄνευ κακοῦ
οὗ ἀρᾶς τὸ στόμα αὐτοῦ γέμει καὶ πικρίας καὶ δόλου ὑπὸ τὴν γλῶσσαν αὐτοῦ κόπος καὶ πόνος
ἐγκάθηται ἐνέδρᾳ μετὰ πλουσίων ἐν ἀποκρύφοις ἀποκτεῖναι ἀθῷον οἱ ὀφθαλμοὶ αὐτοῦ εἰς τὸν πένητα ἀποβλέπουσιν
ἐνεδρεύει ἐν ἀποκρύφῳ ὡς λέων ἐν τῇ μάνδρᾳ αὐτοῦ ἐνεδρεύει τοῦ ἁρπάσαι πτωχόν ἁρπάσαι πτωχὸν ἐν τῷ ἑλκύσαι αὐτόν
ἐν τῇ παγίδι αὐτοῦ ταπεινώσει αὐτόν κύψει καὶ πεσεῖται ἐν τῷ αὐτὸν κατακυριεῦσαι τῶν πενήτων
εἶπεν γὰρ ἐν καρδίᾳ αὐτοῦ ἐπιλέλησται ὁ θεός ἀπέστρεψεν τὸ πρόσωπον αὐτοῦ τοῦ μὴ βλέπειν εἰς τέλος
ἀνάστηθι κύριε ὁ θεός ὑψωθήτω ἡ χείρ σου μὴ ἐπιλάθῃ τῶν πενήτων
ἕνεκεν τίνος παρώξυνεν ὁ ἀσεβὴς τὸν θεόν εἶπεν γὰρ ἐν καρδίᾳ αὐτοῦ οὐκ ἐκζητήσει
βλέπεις ὅτι σὺ πόνον καὶ θυμὸν κατανοεῖς τοῦ παραδοῦναι αὐτοὺς εἰς χεῖράς σου σοὶ οὖν ἐγκαταλέλειπται ὁ πτωχός ὀρφανῷ σὺ ἦσθα βοηθῶν
σύντριψον τὸν βραχίονα τοῦ ἁμαρτωλοῦ καὶ πονηροῦ ζητηθήσεται ἡ ἁμαρτία αὐτοῦ καὶ οὐ μὴ εὑρεθῇ δι᾿ αὐτήν
βασιλεύσει κύριος εἰς τὸν αἰῶνα καὶ εἰς τὸν αἰῶνα τοῦ αἰῶνος ἀπολεῖσθε ἔθνη ἐκ τῆς γῆς αὐτοῦ
τὴν ἐπιθυμίαν τῶν πενήτων εἰσήκουσεν κύριος τὴν ἑτοιμασίαν τῆς καρδίας αὐτῶν προσέσχεν τὸ οὖς σου
κρῖναι ὀρφανῷ καὶ ταπεινῷ ἵνα μὴ προσθῇ ἔτι τοῦ μεγαλαυχεῖν ἄνθρωπος ἐπὶ τῆς γῆς
Au chef des chantres. Sur [Meurs pour le fils]. Psaume de David.
Je louerai l'Éternel de tout mon coeur, Je raconterai toutes tes merveilles.
Je ferai de toi le sujet de ma joie et de mon allégresse, Je chanterai ton nom, Dieu Très Haut!
Mes ennemis reculent, Ils chancellent, ils périssent devant ta face.
Car tu soutiens mon droit et ma cause, Tu sièges sur ton trône en juste juge.
Tu châties les nations, tu détruis le méchant, Tu effaces leur nom pour toujours et à perpétuité.
Plus d'ennemis! Des ruines éternelles! Des villes que tu as renversées! Leur souvenir est anéanti.
L'Éternel règne à jamais, Il a dressé son trône pour le jugement;
Il juge le monde avec justice, Il juge les peuples avec droiture.
L'Éternel est un refuge pour l'opprimé, Un refuge au temps de la détresse.
Ceux qui connaissent ton nom se confient en toi. Car tu n'abandonnes pas ceux qui te cherchent, ô Éternel!
Chantez à l'Éternel, qui réside en Sion, Publiez parmi les peuples ses hauts faits!
Car il venge le sang et se souvient des malheureux, Il n'oublie pas leurs cris.
Aie pitié de moi, Éternel! Vois la misère où me réduisent mes ennemis, Enlève-moi des portes de la mort,
Afin que je publie toutes tes louanges, Dans les portes de la fille de Sion, Et que je me réjouisse de ton salut.
Les nations tombent dans la fosse qu'elles ont faite, Leur pied se prend au filet qu'elles ont caché.
L'Éternel se montre, il fait justice, Il enlace le méchant dans l'oeuvre de ses mains. -Jeu d'instruments.
Les méchants se tournent vers le séjour des morts, Toutes les nations qui oublient Dieu.
Car le malheureux n'est point oublié à jamais, L'espérance des misérables ne périt pas à toujours.
Lève-toi, ô Éternel! Que l'homme ne triomphe pas! Que les nations soient jugées devant ta face!
Frappe-les d'épouvante, ô Éternel! Que les peuples sachent qu'ils sont des hommes!
10:1 Pourquoi, ô Éternel! te tiens-tu éloigné? Pourquoi te caches-tu au temps de la détresse?
10:2 Le méchant dans son orgueil poursuit les malheureux, Ils sont victimes des trames qu'il a conçues.
10:3 Car le méchant se glorifie de sa convoitise, Et le ravisseur outrage, méprise l'Éternel.
10:4 Le méchant dit avec arrogance: Il ne punit pas! Il n'y a point de Dieu! -Voilà toutes ses pensées.
10:5 Ses voies réussissent en tout temps; Tes jugements sont trop élevés pour l'atteindre, Il souffle contre tous ses adversaires.
10:6 Il dit en son coeur: Je ne chancelle pas, Je suis pour toujours à l'abri du malheur!
10:7 Sa bouche est pleine de malédictions, de tromperies et de fraudes; Il y a sous sa langue de la malice et de l'iniquité.
10:8 Il se tient en embuscade près des villages, Il assassine l'innocent dans des lieux écartés; Ses yeux épient le malheureux.
10:9 Il est aux aguets dans sa retraite, comme le lion dans sa tanière, Il est aux aguets pour surprendre le malheureux; Il le surprend et l'attire dans son filet.
10:10 Il se courbe, il se baisse, Et les misérables tombent dans ses griffes.
10:11 Il dit en son coeur: Dieu oublie! Il cache sa face, il ne regarde jamais!
10:12 Lève-toi, Éternel! ô Dieu, lève ta main! N'oublie pas les malheureux!
10:13 Pourquoi le méchant méprise-t-il Dieu? Pourquoi dit-il en son coeur: Tu ne punis pas?
10:14 Tu regardes cependant, car tu vois la peine et la souffrance, Pour prendre en main leur cause; C'est à toi que s'abandonne le malheureux, C'est toi qui viens en aide à l'orphelin.
10:15 Brise le bras du méchant, Punis ses iniquités, et qu'il disparaisse à tes yeux!
10:16 L'Éternel est roi à toujours et à perpétuité; Les nations sont exterminées de son pays.
10:17 Tu entends les voeux de ceux qui souffrent, ô Éternel! Tu affermis leur coeur; tu prêtes l'oreille
10:18 Pour rendre justice à l'orphelin et à l'opprimé, Afin que l'homme tiré de la terre cesse d'inspirer l'effroi.
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Ein Lied Davids, für hohe Knabenstimmen.
HERR, von ganzem Herzen will ich dir danken,
deine machtvollen Taten allen verkünden.
deine machtvollen Taten allen verkünden.
Über dich will ich jubeln und mich freuen,
von dir will ich singen, du höchster Gott!
von dir will ich singen, du höchster Gott!
Vor dir mussten meine Feinde weichen,
sie stürzten und kamen um.
sie stürzten und kamen um.
Du hast dich auf den Richterstuhl gesetzt
und mir zu meinem Recht verholfen,
denn deine Urteile sind gerecht.
und mir zu meinem Recht verholfen,
denn deine Urteile sind gerecht.
Den Völkern hast du gedroht,
die Unheilstifter zerschlagen,
ihre Namen für immer ausgetilgt.
die Unheilstifter zerschlagen,
ihre Namen für immer ausgetilgt.
Völlig vernichtet hast du sie,
ihre Städte entvölkert und in Trümmer gelegt,
für immer sind sie vergessen.
ihre Städte entvölkert und in Trümmer gelegt,
für immer sind sie vergessen.
Doch der HERR regiert für alle Zeiten,
sein Richterstuhl ist aufgestellt.
sein Richterstuhl ist aufgestellt.
Der ganzen Welt spricht er gerechtes Urteil,
unparteiisch entscheidet er über die Völker.
unparteiisch entscheidet er über die Völker.
Den Unterdrückten bietet er sicheren Schutz;
in schlimmer Zeit sind sie bei ihm geborgen.
in schlimmer Zeit sind sie bei ihm geborgen.
Alle, die dich kennen, HERR,
setzen auf dich ihr Vertrauen.
Du lässt niemand im Stich,
der deine Nähe sucht.
setzen auf dich ihr Vertrauen.
Du lässt niemand im Stich,
der deine Nähe sucht.
Preist den HERRN mit eurem Lied,
ihn, dessen Thron auf dem Zionsberg steht;
macht bei den Völkern seine Taten bekannt!
ihn, dessen Thron auf dem Zionsberg steht;
macht bei den Völkern seine Taten bekannt!
Den Hilfeschrei der Armen überhört er nicht,
er vergisst nicht die Qual der Verfolgten
und zieht die Verfolger zur Rechenschaft.
er vergisst nicht die Qual der Verfolgten
und zieht die Verfolger zur Rechenschaft.
HERR, hab Erbarmen mit mir!
Sieh doch, wie sie mir zusetzen mit ihrem Hass!
Hol mich weg von den Toren des Totenreichs!
Sieh doch, wie sie mir zusetzen mit ihrem Hass!
Hol mich weg von den Toren des Totenreichs!
Dann stelle ich mich an die Tore deiner Stadt
und rühme dich vor allen
für das, was du an mir getan hast.
und rühme dich vor allen
für das, was du an mir getan hast.
Die anderen Völker sind in die Grube gefallen,
die sie für uns gegraben hatten.
Sie legten ihre Netze aus
und haben sich selbst darin gefangen.
die sie für uns gegraben hatten.
Sie legten ihre Netze aus
und haben sich selbst darin gefangen.
Der HERR hat seine Macht erwiesen,
er hat für Recht gesorgt.
Die Unheilstifter sind in die eigene Falle gelaufen.
er hat für Recht gesorgt.
Die Unheilstifter sind in die eigene Falle gelaufen.
Hinab zu den Toten gehören sie alle,
die Völker, die Gott den Rücken kehren!
die Völker, die Gott den Rücken kehren!
Doch die Armen sind nur scheinbar vergessen,
ihre Hoffnung ist nicht für immer dahin.
ihre Hoffnung ist nicht für immer dahin.
Greif ein, HERR!
Lass nicht zu,
dass ein Mensch dir die Stirn bietet!
Zieh die Völker vor Gericht,
sprich ihnen allen das Urteil!
Lass nicht zu,
dass ein Mensch dir die Stirn bietet!
Zieh die Völker vor Gericht,
sprich ihnen allen das Urteil!
Stürze sie in Angst und Schrecken, HERR,
zeig ihnen, dass sie nur Menschen sind!
zeig ihnen, dass sie nur Menschen sind!
10:1Warum bist du so weit weg, HERR? Warum verbirgst du dich vor uns?
Wir sind vor Elend am Ende!
Wir sind vor Elend am Ende!
10:2Schamlose Schurken stellen den Armen nach
und fangen sie in heimtückischen Fallen.
und fangen sie in heimtückischen Fallen.
10:3Sie geben auch noch damit an,
dass sie so unersättlich sind.
Nichts zählt bei ihnen, nur ihr Gewinn.
Sie danken dir nicht, Gott, sie lästern dich nur!
dass sie so unersättlich sind.
Nichts zählt bei ihnen, nur ihr Gewinn.
Sie danken dir nicht, Gott, sie lästern dich nur!
10:4In ihrem Größenwahn reden sie sich ein:
»Wie sollte Gott uns zur Rechenschaft ziehen?
Wo er doch gar nicht existiert!«
Weiter reicht ihr vermessenes Denken nicht.
»Wie sollte Gott uns zur Rechenschaft ziehen?
Wo er doch gar nicht existiert!«
Weiter reicht ihr vermessenes Denken nicht.
10:5Sie tun, was sie wollen, und alles gelingt.
Ob du sie verurteilst, berührt sie nicht;
du bist ja so fern dort oben!
Ob du sie verurteilst, berührt sie nicht;
du bist ja so fern dort oben!
Sie lachen spöttisch über jeden Gegner.
10:6»Was soll uns erschüttern?«, sagen sie.
»An uns geht jedes Unglück vorüber;
so war es immer, so bleibt es auch!«
»An uns geht jedes Unglück vorüber;
so war es immer, so bleibt es auch!«
10:7Sie fluchen, sie lügen und drohen,
was sie reden, bringt Verderben und Unheil.
was sie reden, bringt Verderben und Unheil.
10:8Im Hinterhalt liegen sie nah bei den Dörfern,
warten auf Leute, die nichts Böses ahnen,
heimlich ermorden sie schuldlose Menschen.
warten auf Leute, die nichts Böses ahnen,
heimlich ermorden sie schuldlose Menschen.
10:9Sie liegen und lauern wie Löwen im Dickicht,
sie spähen nach hilflosen Opfern aus
und fangen sie ein mit ihren Netzen.
sie spähen nach hilflosen Opfern aus
und fangen sie ein mit ihren Netzen.
10:10Sie ducken sich, werfen sich auf die Armen
und stoßen sie nieder mit roher Gewalt.
und stoßen sie nieder mit roher Gewalt.
10:11Bei alledem sagen diese Verbrecher:
»Gott fragt nicht danach, er sieht niemals her,
er will von uns gar nichts wissen.«
»Gott fragt nicht danach, er sieht niemals her,
er will von uns gar nichts wissen.«
10:12Steh auf, HERR! Greif doch ein, Gott!
Vergiss nicht die Schwachen,
nimm sie in Schutz!
Vergiss nicht die Schwachen,
nimm sie in Schutz!
10:13Lass nicht zu,
dass die Schurken dich missachten!
Warum dürfen sie sagen:
»Er straft uns ja nicht«?
dass die Schurken dich missachten!
Warum dürfen sie sagen:
»Er straft uns ja nicht«?
10:14Aber du bist nicht blind!
Du siehst all das Leiden und Unheil
und du kannst helfen.
Darum kommen die Schwachen und Waisen zu dir
und vertrauen dir ihre Sache an.
Du siehst all das Leiden und Unheil
und du kannst helfen.
Darum kommen die Schwachen und Waisen zu dir
und vertrauen dir ihre Sache an.
10:15Zerschlage die Macht der Unheilstifter,
rechne mit ihnen ab,
mach dem Verbrechen ein Ende!
rechne mit ihnen ab,
mach dem Verbrechen ein Ende!
10:16Du, HERR, bist König für immer und ewig.
Die Fremden, die nichts von dir wissen wollen,
müssen aus deinem Land verschwinden.
Die Fremden, die nichts von dir wissen wollen,
müssen aus deinem Land verschwinden.
10:17Du nimmst die Bitten der Armen an,
du hörst ihr Rufen, HERR,
du machst ihnen Mut.
du hörst ihr Rufen, HERR,
du machst ihnen Mut.
10:18Den Waisen und Unterdrückten verschaffst du Recht
und lässt keinen Menschen mehr Schrecken verbreiten auf der Erde.
und lässt keinen Menschen mehr Schrecken verbreiten auf der Erde.